पुरुष और ‘ना’…
चलिए एक सच्ची घटना से बात को शुरू करतें हैं।
एक बार ऐसा हुआ कि, में और मेरी एक दोस्त रात को एक मॉल के सामने टहल रहें थे। तब दो लड़के सामने से आए और उन्होंने मेरी दोस्त से उसका नंबर माँगा। मेरी दोस्त ने मना कर दिया और हम आगे बढ़ने लगे। कुछ कदम आगे गए ही थे कि देखा वो लोग रास्ते के दूसरी ओर से हमारे साथ चल रहें थे। ये देख हम लोगोने रास्ता बदला, पर वहां भी वो हमारे पीछे-पीछे आने लगे। ऐसा एक दो बार और हुआ। उसके बाद वो दोनों हमरे सामने फिर आ खड़े हुए और उनमे से एक ने मेरी दोस्त को सम्बोधित करते हुए कहा,
“मेरे दोस्त में ऐसी क्या कमी है जो तुमने ने उसे मना कर दिया ? “
अब गौर फरमाइए कि हम दो लड़किया रात के १० बजे आराम से मॉल में घूम रही थी। यहाँ ये दो लड़के आतें हैं, उनमे से एक को मेरी दोस्त पसंद आती है, वो अपनी बात को रखतें हैं पर मना किये जाने पर उन्हें बुरा लगता है, वह भी इतना जैसे कि मेरी दोस्त ने केवल उनसे बात करने को मना न किया हो पर जैसे उनके अस्तित्व को ही झुटला दिया हो |
वो तो अच्छा हुआ कि हम दोनों सही सलामत घर पहुंच पाई, पर प्रश्न यही रह जाता है कि, उन भाईसाहब को इतना बुरा लगा तो क्यों लगा?
उत्तर कि खोज करनी है तो शायद, शुरुवात से शुरुवात करनी पड़ेगी। जब एक बच्चा हिंदुस्तानी घर में जनम लेता है तो पैदा होंने के साथ ही उसपे आकांक्षाओ और आने वाली जिम्मेरदारिओ का बोझ दाल दिया जाता है। ज्यादातर बच्चे चाहे वो लड़का हो या लड़की इसी खौफ का घोल पी कर बड़े होते हैं कि वह अपने माता-पिता को कहीं disappoint न कर दें। अब राजा बेटा और रानी बेटी होने की ललक हमारे जीवन को आडंबनों से भर देती है।
लड़कियों और दूसरे genders के लिए तो जीवन कठिन है ही, लेकिन पुरुषों के लिए भी स्वाभाविक रूप से जीवन जीना आसान नहीं है।
वह रो नहीं सकते, वो प्रेम से और कोमल भाषा में बात करें हैं तो उनको लड़की होने का label दिया जाता है। उनके जनम से ही ये तय हो जाता है कि वह बड़े होकर कुछ खास बनेगे और बोहोत पैसे कमाएंगे। चाहे उनको परवरिश के रूप में ठेंगा ही क्यों न मिला हो। दुनिया और परिवार की जिम्मेदारी का बोझ इन छोटे-छोटे कंधो पर आ चढ़ता है। इसी कारन एक छोटा लड़का कब अंदर ही अंदर पुरुष बन जाता है, शायद उसे भी पता नहीं चलता।
खूब पैसे कमाना, घर और गाड़ी खरीदना, अपने लिंग के लम्बाई मापना और बच्चे पैदा करने कि क्षमता रखना ही उस बढ़ते हुए पुरुष कि पहचान बन जाती है।
आप पूछेंगे कि इस बात के साथ ‘ना’ न मंज़ूर कर पाने से क्या सम्बन्ध है?
है।
क्योकि जब आपके अस्तित्व का महल बाहरी आडंबनों के खँडहर पर बसा हो तो, एक ‘ना’ का कंकड़ भी ईमारत हिला सकता है।
ऐसा नहीं कि पुरुष ‘ना’ शब्द या रिजेक्शन से होने वाले दुःख को महसूस कर झेल नहीं जातें। कॉलेज में एडमिशन ना पाना, नौकरी न पाना, या किसी कोर्स में फ़ैल होना ये सब experience तो करते हैं पुरुष। जीवन है तो असफलता भी रहेगी। पर आप किसी अफसर को stalk करेंगे, या उनको अपने nudes भेजेंगे, या रास्ता रोक कर उनसे ये पूछेंगे कि, “बताओ भाई मुझमे क्या कमी है?” तो शायद नौकरी के जगत में खाता खुलने से पहले ही बंद हो जाए।
ऐसा केवल लड़कियों के साथ करना लाज़मी लगता है क्योंकि अब तलक वो पलट के जवाब नहीं देती थी।
तो जनाब, एक बात में साफ़ साफ़ कहना चाहूंगी।
आप और हम, हम सभी, बासी परवरिश के तरीको से पले-बड़े हैं, दुनिया आपको भी अपने बोझ के तले दबाती है और हमें भी, आत्मसम्मान के चीथड़े आपके भी उड़े हैं और हमारे भी।तो आप हमसे, याने औरतों से ये उम्मीद ना करें कि हम आपके टूटे हुए अस्तित्व के महल को जोड़े रखें।
ये हम से ना हो पाएगा।
इसलिए हमारी ‘ना’ से चोटिल होने से अच्छा है कि आप स्वयं खुद पर काम करें और सही में देखे कि आप किस प्रकार सव्भाविक रूप से आपने आप को गड सकतें हैं। जब सिक्षित, समर्थ और साधारण तौर पर समझदार पुरुष, हमारी ‘ना’ को अपना अपमान समझ हमसे बदसुलूकी करतें हैं या खुद कुछ गलत कर बैठते है, तो सच कहती हूँ बोहोत बुरा लगता है।
जब आप ये काम कर लेंगे तो आप समझ जाएँगे कि औरतों कि ‘ना’ केवल उनकी चॉइस को दर्शाती है, जिसका उनको पूरा हक़ है।
वैसे ही जैसे खाने कि मेज़ पर १० स्वादिष्ट व्यंजन रखें हो, और आप बैगन का भरता चुन लें तो वो आपकी चॉइस होगी। आपके इस चुनाव से बिरयानी अगर अपने करैक्टर को कोसने लगे, या समोसे अपनी क्वालिटी को, या लस्सी आग बबूला होकर गिलास से उछाल पड़े तो शायद आप भी अचरज में पढ़ जाएँगे जैसे हम औरतें हर रोज़ परेशान होतीं हैं !
therapy कीजिये, खुद के बारे में जानिए,आडंबनों से पीछा छुडाइये और एक स्वाभाविक मनुष्य बनिए।